Sunday, July 18, 2021

JHARKHAND ADIVASI VIKAS KA SACH




ऐसा कहा जाता रहा है कि संविधान की पाँचवीं अनुसूची आदिवासियों के लिए उनका धर्मग्रंथ है; जिसके प्रति उनकी आस्था है; उनकी श्रद्धा है। यह धर्मग्रंथ उनके जीने की आशा है; उनका स्वर्णिम भविष्य है। लेकिन संविधान रूपी इस धर्मग्रंथ के प्रति अब आस्था टूट रही है और उनकी श्रद्धा कम हो रही है। अब यह आस्था बनाए रखने का धर्मग्रंथ नहीं; बल्कि आदिवासी इसे कोरे कागज की तरह देख रहे हैं।
इस पुस्तक के माध्यम से प्रस्तुत विश्लेषण पाँचवीं अनुसूची के संवैधानिक प्रावधानों के अलावा आदिवासी समाज के उन तमाम पहलुओं पर प्रकाश डालने की कोशिश है; जिसका सीधा संबंध संविधान की पाँचवीं अनुसूची से है। वर्तमान संदर्भ में यह विश्लेषण पाँचवीं अनुसूची के उल्लंघन के कारण उत्पन्न होने वाली उन प्रतिकूल परिस्थितियों पर भी प्रकाश डालने की कोशिश है; जिनके कारण आदिवासी समाज का विकास बाधित होने की आशंका को बल मिल रहा है। वस्तुतः झारखंड का नवनिर्माण का मकसद हमारी आनेवाली पीढ़ी के भविष्य का निर्माण। इस पुस्तक को प्रासंगिक बनाने के लिए ऐतिहासिक संदर्भों में विद्यमान तथ्यों को भरसक जुटाने की कोशिश करते हुए; झारखंड नवनिर्माण का मार्ग कैसे तय हो; इसकी चिंताधारा ढूँढ़ने की कोशिश की गई है।
आशा है यह पुस्तक आदिवासियों के विकास और झारखंड के नवनिर्माण की दिशा में ज्ञानवर्द्धक सिद्ध होगी।

Jharkhand ke Sahityakar Aur Naye Sakshatkar




झारखंड के रचनाकार शुरू से ही शिक्षा; साहित्य; समाज और राजनीति में उपेक्षित रहे हैं। मुंडारी के प्रथम लेखक-उपन्यासकार मेनस ओड़ेया हों; हिंदी की पहली आदिवासी कवयित्री और संपादक सुशीला सामद हों या नागपुरी के धनीराम बक्शी; ऐसे सभी झारखंडी-लेखकों और साहित्य साधकों का जीवन और कृतित्व अलिखित दुनिया के अँधेरे में समाया हुआ है। रघुनाथ मुर्मू; प्यारा केरकेट्टा; लको बोदरा पर हिंदी में एकाध पुस्तकें प्रकाशित हुई हैं; लेकिन फादर पीटर शांति नवरंगी के व्यक्तित्व और कृतित्व पर जिस तरह का महत्त्वपूर्ण शोध और उसका प्रकाशन हुआ है; अन्य झारखंडी लेखकों-साहित्यकारों पर नहीं हो सका है। झारखंड के राँची; धनबाद और जमशेदपुर से विपुल मात्रा में पत्र-पत्रिकाएँ प्रकाशित होती रही हैं; परंतु इन पत्र-पत्रिकाओं में झारखंडी रचनाकारों के साक्षात्कारों के लिए जगह नहीं होती। झारखंड अलग राज्य बनने के बाद भी इस स्थिति में कोई मूलभूत बदलाव नहीं आया है।
इस पुस्तक में उन पुरखा साहित्यकारों के परिचय व साक्षात्कारों को संकलित किया गया है; जिन्होंने हिंदी और अपनी आदिवासी एवं देशज मातृभाषाओं में झारखंडी साहित्य को विकसित और समृद्ध किया है। इसका उद्देश्य झारखंडी साहित्य के इतिहास में रुचि रखनेवालों को आधारभूत जानकारी उपलब्ध कराना है; ताकि विश्व साहित्य-जगत् हमारे पुरखा रचनाकारों और समकालीन झारखंडी लेखकों के चिंतन और रचनाकर्म से परिचित हो सके।

Jharkhand Mein Vidroh Ka Itihas (Hindi Edition)


झारखंड संघर्ष की धरती रही है। यहाँ के आदिवासियों ने अंग्रेजों के खिलाफ स्वतंत्रता की पहली लड़ाई लड़ी थी।झारखंड में विद्रोह का इतिहासनामक इस पुस्तक में 1767 से 1914 तक हुए संघर्ष का जिक्र है। धालभूम विद्रोह के संघर्ष से कहानी आरंभ होती है। उसके बाद चुआड़ विद्रोह, तिलका माझी का संषर्घ, कोल विद्रोह, भूमिज विद्रोह, संथाल विद्रोह, बिरसा मुंडा का उलगुलान आदि सभी संघर्ष-विद्रोहों के बारे में इस पुस्तक में विस्तार से चर्चा की गई है। संथाल विद्रोह के तुरंत बाद ही, यानी 1857 में झारखंड क्षेत्र में भी सिपाही विद्रोह हुआ। झारखंड के वीरों ने इस विद्रोह में बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया। राजा अर्जुन सिंह, नीलांबर-पीतांबर, ठाकुर विश्वनाथ शाही, पांडेय गणपत राय, उमरांव सिंह टिकैत, शेख भिखारी आदि उस विद्रोह के नायक थे। इस पुस्तक में उनके संघर्ष के बारे में विस्तार से वर्णन किया गया है। पुस्तक में चानकु महतो, तेलंगा खडि़या, सरदारी लड़ाई, टाना भगतो के आंदोलन, गंगानारायण सिंह, बुली महतो से संघर्ष का भी जिक्र है। बिरसा मुंडा के एक सहयोगी गया मुंडा और उनके परिवार के संघर्ष का जीवंत विवरण दिया गया है। प्रयास है कि झारखंड के वीरों और उनके संघर्ष की जानकारी जन-जन तक पहुँचे और किसी भी विद्रोह का इतिहास छूट जाए। इस पुस्तक की खासियत यह है कि सभी विद्रोहों-संघर्षों का प्रामाणिक विवरण एक जगह दिया गया है। झारखंड में जल-जंगल-जमीन का अधिकार, अपनी अस्मिता और भारत मुक्ति आंदोलन की लड़ाई को भी समाहित किया गया है, ताकि पुस्तक का क्षेत्र और व्यापक हो जाए।

TOPAH BANAM - 2

 TOPAH BANAM - 2 A GO RUWAAD EN DOM BANJ CHALAA AAM BAGIKATE AAMGEM ADISH KAHINSH ENADO OKOI KAAN TAHEN UNI BANAM RUSIKA JAHA RETAI NUNAH DA...